!छुरा@ राजिम विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने पार्टी कार्यकर्ताओं को मनाने समझाने के लिए प्रदेश भाजपा के बड़े चेहरे धरम लाल कौशिक, राष्ट्रीय संगठन मत्री अजय जामवाल, प्रदेश प्रभारी ओम माथुर, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण साव, पश्चिम बंगाल के विधायक सुशांत घोष, बिहार के दिलीप जायसवाल, प्रदेश कोषाध्यक्ष नंदन जैन जैसे नेताओं ने डेमज कंट्रोल करने का प्रयास करने का प्रयास किया गया लेकिन दो महीने के बाद भी फुंसी से अब फोडा़ हो गया है , अंदर खाने में चर्चा है कि विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं भाजपा के अधिकांश कार्यकर्ताओं को आज भी घोषित प्रत्याशी स्वीकार नहीं है ! भाजपा जीतीं बाजी सिर्फ पैराशूट उम्मीदवार के कारण मुगेरीलाल के सपने देखने में लगी हुई है, राजिम विधानसभा में जोगी कांग्रेस से चुनाव लडकर हारने वाले को टिकट दिया जाना भाजपा कार्यकर्ताओं के समझ से परे है दलबदल कर आये विधायक को प्रत्याशी बनाया जाता है वह समझ आता है! राजिम विधानसभा में एक महात्मा के साथ भाजपा नेता ओम माथुर, अजय जामवाल, पवन साय, नितिन नवीन के साथ साठ मिनट तक बैठक में संत ने भाजपा नेताओं को चुनौती देकर वापस आश्रम आकर चुनाव लड़ने का रुपरेखा तैयार करने में लगे हुये हैं, भाजपा नेताओं ने संत की बात मान लेते तो संत भाजपा प्रत्याशी के लिए आशीर्वाद प्रदान करते लेकर भाजपा नेताओं ने संत को तवज्जो न देकर पार्टी के लिए गढ्ढे खोदने का काम किये है, संत ने अपने लिए टिकट की मांग नहीं किया, संत संघ एवं विहिप के बड़े नेताओं को अवगत करा चुके हैं, कांग्रेस के घोषित प्रत्याशी के विरोध में अभी तक एक भी कार्यकर्ता ने मुंह नहीं खोला, कांग्रेस से टिकट की चाह रखने वाले लोगों ने कांग्रेस प्रत्याशी के पक्ष में खड़े हो गये हैं लेकिन भाजपा में ठीक विपरीत है मौन रहकर बडे़ नेताओं के सभाओं का बायकाट कर विरोध जता रहे हैं!फिगेश्वर में विधानसभा स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में भाजपा के अधिकांश नेताओं की अनुपस्थिति, एंव उपस्थित संख्याओं पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने वाक ओवर समझ रहे हैं!राजिम विधानसभा के मतदाता बहुत समझदार है दलबदल करने वाले नेताओं को स्वीकार नहीं करते जिसका उदाहरण है संत कवि पवन दीवान, विद्याचरण शुक्ल, संतोष उपाध्याय, हालाकि दलबदलू नेता पाला बदलने के लिए भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन असल में उनकी कोई विचारधारा ही नहीं होतीदलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? साथ ही वह जिस दल को छोड़ते हैं और जिससे जुड़ते हैं उन दोनों की सिरदर्दी बढ़ाते हैं।उससे यही साफ हुआ कि भारतीय लोकतंत्र किस तरह अवसरवादी राजनीति से ग्रस्त है। आम तौर पर दलबदल करने वाले नेताओं के पास एक जैसे घिसे-पिटे तर्क होते हैं। कोई कहता है कि उनकी जाति-बिरादरी के लोगों की उपेक्षा हो रही थी तो कोई अपने क्षेत्र की अनदेखी का आरोप लगाता है। दलबदलू नेता यह कभी नहीं बताते कि वे जिन खामियों का उल्लेख करते हुए दल बदलते हैं, उनका आभास उन्हें चुनावों की घोषणा होने के बाद ही क्यों होता है? वे यह भी नहीं बताते कि क्या उन्होंने कभी उन मसलों को पार्टी के अंदर उठाया, जिनकी आड़ लेकर दलबदल किया? यह हास्यास्पद है ।यह एक तथ्य है कि दलबदल निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है। कुछ को टिकट न मिलने का डर होता है तो कुछ को अपनी यह मांग पूरी होती नहीं दिखती कि उनके साथ-साथ उनके सगे संबंधी को भी टिकट मिले। कुछ अपने क्षेत्र की जनता की नाराजगी भांपकर अन्य क्षेत्र से चुनाव लडऩे की फिराक में नए दल की ओर रुख करते हैं। दलबदल करने वाले नेता भले ही विचारधारा की आड़ लेते हों, लेकिन सच यह है कि उनकी कोई विचारधारा नहीं होती। वे जिस दल में जाते हैं, उसकी ही विचारधारा का गुणगान करने लगते हैं, जबकि कुछ समय पहले तक उसकी निंदा-भत्र्सना कर रहे होते हैं। विडंबना यह है कि कई बार मतदाता भी उनके बहकावे में आ जाते हैं।दलबदलू नेता जिस दल को छोड़ते हैं, केवल उसे ही असहज नहीं करते, बल्कि वे जिस दल में जाते हैं वहां भी समस्या पैदा करते हैं, क्योंकि उसके चलते उसके क्षेत्र से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे नेता को झटका लगता है। कई बार वह नाराजगी में विद्रोह कर देता है या फिर किसी अन्य दल में शामिल हो जाता है। जिस तरह चुनाव की घोषणा होने के बाद दलबदल होता है, उसी तरह प्रत्याशियों की घोषणा होने के बाद भी। जिस दल के नेता का टिकट कटता है, वह दूसरे दल जाकर प्रत्याशी बनने की कोशिश करता है। शायद ही कोई दल हो, जिसे टिकट के दावेदारों के चलते खींचतान का सामना न करना पड़ता हो, लेकिन वे कोई सबक सीखने को तैयार नहीं।