कल वो फिर नही आई
मेरी काम वाली बाई
और मैं सोचती रही
क्या हुआ होगा
पेट दर्द, सिर दर्द, हाथ दर्द
या पैर में पीड़ा..
रोज सुबह चाय का कप
साथ पीने के बहाने
जब बैठा देती हुँ उसे काम के बीच रोककर
देखती सुनती हुँ उसे
तब उठती है एक टीस सी मन में
कभी वो गिनाती है अनगिनत समस्याएं
गरीबी से लेकर असाक्षरता तक
बच्चों के भविष्य से लेकर उनके
रोगों के निदान तक;
रोटी, कपड़ा और मकान की
मूलभूत जरूरतों के लिए जूझते हुए..
सूर्योदय से शुरू होती
रोज वही कहानी
झाड़ू और बर्तन
हर दाग रगड़ना
धूल पौंछना
ना समय पर भोजन
ना अधिकार
श्रम के बोझ तले दबी आवाज..
एक बार तीन दिन ना आने के बाद
जब आकर बोली
भाई को जेल करवाकर आई हुँ
बुलाया था विधवा सहयोग की खातिर
समझ गई मैं
वही हमारी पितृ सत्ता वाली मानसिकता
सहयोग तो कुछ हुआ नही
नोंक-झोंक, ताक-झाँक, वाद-विवाद,
मार-पीट और नियन्त्रण का भाव
बढने लगा था हर रोज
शोषित करते रूह को..
स्त्री कैसी भी हो
नीची जाति की या फिर ऊंची,
हिन्दू-मुस्लिम या सिख-ईसाई
विकसित देश की हो या फिर
अविकसित और विकासशील
स्वतन्त्रता उसकी सदैव अधूरी है
भाग्य का क्रूर कहर
कभी दूसरों ने जकड़ा बंधनों में
तो कभी खुद जिम्मेदारियों की मारी हैं
बाधित, बंधित, वंचित और पीड़ित…