कैसा अथाह सागर समाया हैं
नाजुक नारी हृदय में
कभी झाँक कर देखते तो जान पाते
पानी के बुलबुलों सा तुम्हारा प्रेम
पल में बनता
पल में गायब होता रहता हैं
स्वप्निल आँखों में
थामने की भरसक कोशिश करती रहती हैं
एक आस की अलख जगाए स्त्री
उसकी नाकामी का दर्द क्या समझोगे
उसके अन्तर्मन की गहराई कहाँ नाप पाओगे..??
हाथ थामकर विश्वास से
कि ऊँची उड़ान भरेंगें
सदा संग प्रेम की
झूठे वादों की धरा पर सदैव लुटती रही
सदियों से पाबन्द थी नारी
उस चौखट से बाहर न आने को
पर वो तुम ही थे
जो बाहर लाए थे और फिर वापिस कैद करने को
आज फिर वही खड़ी हैं
दुष्चक्र के घेरे में
भीख माँगते हुए खुली हवा में साँस लेने को
पर तुम ठोकर मार चले गए
उसके वजूद की बुनियाद पर
अपने वजूद के किले बनाने के लिए…
पुरुषत्व के अहंकार में
नारीत्व सदियों से ही कुचला गया हैं
और भीतर की नारी बिखरी हुई
पतझड़ के सुखे पत्तों की तरह
दंभ भरे किले की नींव में दफन हो
एक उद्घोषणा करती हैं-
‘मेरा बीज लहलहाएगा एक दिन
तेरे किले की दीवार में से
तेरी ही बेटी के रूप में…’